Monday, October 26, 2009

अखबारी दुनिया का नया पाठ

रोटी तो कुत्ते भी खाते हैं, शराब पिया करो।।

ये दोहा पढ़कर अंदाजा हो ही गया होगा कि किसी शराब प्रेमी ने ये लाइन कही होंगी। जिले की पत्रकारिता के भी बड़े अनुभव होते हैं। एक नशीले शायर ने ये बातें कह दीं। अब मेरा क्या कसूर मैं शराब नहीं पीता हूं। वैसे आफर खूब मिल रहे हैं और मैं सिरे से नकार रहा हूं। इसके परिणाम भी मिले। लोगों ने पूछना बंद कर दिया। मुझे भी अच्छा लगा। कम से कम उनकी बिरादरी से बाहर तो हो गया। जनाब! ऐसे चाहने वाले आपको भी मिल जाएंगे, जब आप जिले की पत्रकारिता में आएंगे। आजकल हमसफर प्याले से बनाया जाता है प्यार से नहीं।।

अब सिर्फ पीने वालां पर ही बात होती है
नहीं पीने वाले की क्या औकात होती है।।


-ज्ञानेन्द्र

Saturday, October 3, 2009

मक्खन से भी आगे निकला लौंग का तेल

तथाकथित पत्रकारों का नया कारनामा


कबिरा तेरे देश में भांति-भांति के जीव
कुछ तेलू, पेलू और कुछ खबरनबीस।।

ऐसे ही जीवों की एक प्रजाति है पत्रकार। इनके बारे में क्या बताएं, बेचारे दुखिया हैं।।
इसीलिए इनको मेमना भी कहा जाता है। मेमना इसलिए क्योंकि मुलायम गोश्त खाने वाले कभी भी इन्हें हलाल कर सकते हैं। अब पत्रकार हलाल होगा या झटका, इस बहस में मत पड़िए। हर पत्रकार अपनी किस्मत लिखा के लाया है। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों की अनेक नस्लें हैं। प्रदेश छोड़िए, शहर में ही नस्लों का अंबार मिल जाएगा। हर पत्रकार अलग ही नसल का होता है। अब किसकी क्या नसल है ये तो उसकी श्रद्धा पर ही निर्भर होता है। हालांकि नस्लीय पत्रकार की भी कई प्रजातियां हैं। अब ये तो अवसर की बात है। किसको क्या मिले ये भी मुकद्दर की बात है।
खैर वर्तमान में पत्रकारों की हाइब्रिड नसल ही सबसे अच्छी मानी जाती है। इस
नसल में मक्खन, घी, तेल सभी का प्रयोग किया जाता है। इसमें क्वालिटी मेनटेन करना ही प्रमुख उद्देश्य होता है। जैसे ही क्वालिटी डैमेज होती है, वैसे ही काम लग जाता है। फिर वही पत्रकार तथाकथित पत्रकार की श्रेणी में आ जाते हैं। एक सर्वे में पता चला है कि बाजार से घी, तेल, मक्खन तथा इनसे संबंधित तैलीय व चिकनाईयुक्त पदार्थ पहले ही बुक हो चुके हैं या खरीदे जा चुके हैं।
कुछ करिश्माई तथाकथित पत्रकारों ने नए आविष्कार खोज निकाले हैं और मंदी के इस दौर में मार्केट में नए प्रोडक्ट्स लांच कर दिए हैं। इन प्रोडक्ट्स में ज्यादा चिकनाई है। जैसे सांडे का तेल, लहसुन और लौंग का तेल। हमने ऐसे कुछ तथाकथित पत्रकारों से जानना चाहा कि मंदी के दौर में भी इतने महंगे और किफायती तेल की क्या जरूरत थी। झट से पलट कर बोले, सर्दी शुरू हो रही है। निष्कर्ष ये ही निकलता है कि सिस्टम की कितनी भी सफाई क्यों न कर ली जाए। ऐसी जंगली घास उगती ही रहेगी।

-ज्ञानेन्द्र