Tuesday, November 16, 2010

बलि दिवस पर खास

इसे इत्तेफाक ही कहंेगे कि बकरीद और देवोत्थान साथ हैं। देवता जब आंख खोलेंगे तो असंख्य बकरे अपनी अंतिम सांस छोड़ेंगे, कुर्बान होंगे क्योंकि कुर्बानी...कुर्बानी...कुर्बानी...अल्लाह को प्यारी है कुर्बानी। अजब संयोग है इस बार चार पैर के बकरों के अलावा दो पैर के बकरे भी कटेंगे या हलाल होंगे, जो भी कह लें। ये दो पैर के बकरे कौन हैं साहब...अजी ये वो बकरे मतलब लड़के हैं जो सेहरा बांधेगे, घोड़ी चढें़गे और हंसते-हंसते कुर्बान होंगे। बकरीद में बकरे को सजाया जाता है। इन्हें भी सजाया जाएगा। बकरे को माला पहनाई जाती है, इन्हें भी पहनाई जाएगी। बकरे को खूब खिलाया जाता है, जनाब इन्हें भी खिलाया जाएगा। बकरे की कुर्बानी के समय लोग खुशी मनाते हैं, यहां भी धूम-धड़ाके से बारात निकाली जाएगी और खुशी मनाई जाएगी। बस फर्क इतना होगा कि बकरों को हमेशा के लिए सुला दिया जाएगा और इन्हें...... बताने की जरूरत नहीं। बेचारे बकरे तो हलाल हो जाएंगे। जन्नत की ओर रवाना हो जाएंगे, लेकिन दूल्हे शादी की सेज से नया जन्म पाएंगे। बकरे अपने-अपने कर्मों के हिसाब से नया जन्म पाते हैं, लेकिन यहां भी दूल्हे लाचार हो जाते हैं। बकरों को किसी भी योनि में जन्म मिले, वो बकरा तो नहीं बनेगा जबकि दूल्हा शादी के बाद चूहा बन जाता है जिस पर दुर्गाजी सवार रहती हैं। कुछ अपने को बाहर शेर भी कहते हैं मगर घर में बिल्ली बन जाते हैं वो भी भीगी। कुछ इस तरह शादी के बाद अलग-अलग योनियों में दूल्हा भटकता रहता है। बकरों को तो जन्नत नसीब भी हो जाती होगी मगर ये तो जन्नत के दरवाजे पर खड़े ही रह जाते हैं। खैर बकरा काटो चाहे दूल्हा। आज का जमाना खूब मजे लेने लगा है। बकरा काटोगे तो चाव से खाया जाएगा और दूल्हा काटोगे तो नाच-नाच कर खाया जाएगा। इन्ज्वाय दोनों में ही किया जाएगा। इसलिए बलि अब सस्ती हो गई है-
बकरीद मुबारक......

Wednesday, November 3, 2010

दीपावली विशेष:ःःः

मदारी-बंदर का खेल

डम... डम... डम... डम... डम... डम...

मदारी: जमूरे

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: लोगों को हंसाएगा

जमूरा: हंसाएगा, उस्ताद

मदारी: मनोरंजन करेगा

जमूरा: करेगा, उस्ताद

मदारी: बता, धनतेरस के बाद कौन सा त्योहार आता है

जमूरा: दीपावली, उस्ताद

मदारी: दीपावली में क्या होता है

जमूरा: खुशी मनाते हैं, उस्ताद

मदारी: खुशी किसके साथ मनाते हैं

जमूरा: घरवालों के साथ, उस्ताद

डम... डम... डम... डम... डम...

मदारी: जमूरे, तो इस बार घर जाएगा

जमूरा: नहीं, उस्ताद

मदारी: क्यों, खुशी नहीं मनाएगा

जमूरा: नहीं, उस्ताद

मदारी: घर नहीं जाएगा

जमूरा: नहीं उस्ताद

मदारी: उदास है क्या

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: क्यों जमूरे

जमूरा: छुट्टी नहीं मिली, उस्ताद

मदारी: छुट्टी क्यों नहीं मिली

जमूरा: सेटिंग नहीं थी, उस्ताद

मदारी: नौकरी करता था, सेटिंग क्यों नहीं बन पाई

जमूरा: काम करता था, उस्ताद

मदारी: काम तो सब करते थे

जमूरा: मैं अडवांस नहीं था, उस्ताद

मदारी: जमूरे...उदास है

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: मेरे साथ दीवाली मनाएगा

जमूरा: नहीं, उस्ताद

मदारी: फिर क्या करेगा

जमूरा: अपने को कोसूंगा, उस्ताद

मदारी: क्यों कोसेगा

जमूरा: नौकरी, न करी, उस्ताद

मदारी: क्यों न करी

जमूरा: छुट्टी कैंसल हो गई, घर नहीं जा सकता,
अब आम आदमी अपना धार्मिक पर्व नहीं मना सकता

मदारी: तो क्या मानंे, अंग्रेजों का शासन आ गया

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: फिर आजादी कैसी... सोच में पड़ गया मदारी

जमूरा: सोचो मत, उस्ताद

ये रोने का समय है, देखो, आम आदमी आज भी खुशियों से कितनी दूर है।



इस दीवाली न जाने कितने तनहाई में रहेंगे
दुनिया तो जगमग होगी, दिल में अंधेरे रहेंगे
होंगे दूर न जाने कितने परिवार से
तकिया लेकर सुबकेंगे तो कई टल्ली भी रहेंगे।।


दीपावली की सभी को शुभकामनाएं:ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः

Tuesday, September 28, 2010

अहसास

एक रात
चांदनी छाई
ठंडी हवा सरसराई
ख्वाब मेरे
सजने लगे
होंठ मेरे खिलने लगे
सपनों में मैं खोने लगा
कुछ मुझे होने लगा
बदल रहा बार-बार करवट
पड़ रही थी चादर में सिलवट
मैं मदहोश होने लगा
जिया मेरा खोने लगा
ये कैसा अहसास होने लगा।

Wednesday, September 22, 2010

बहस भरा सफर

सुबह के नौ बजे थे। तीन दोस्त दिल्ली-आगरा हाइवे पर चल रहे थे। वे नोएडा से आगरा आ रहे थे। रोहित, रौनित और अमजद। तीनों ही नोएडा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र हैं। तीनों पढ़ने में तेज थे और तीनों की बनती भी खूब है। रोहित आगरा का रहने वाला और साधारण परिवार का था। तीनों रौनित की कार में उसी के घर आ रहे थे। रौनित बड़े परिवार का इकलौता बेटा था जबकि अमजद नोएडा में किराये पर रहता था। वो रहने वाला अलीगढ़ का है। आगरा आते हुए तीनों बात कर रहे थे आयोध्या फैसले के बारे में। हमेशा एक राय रहने वाले इस बार एक राय नहीं थे। फिर भी बहस कर रहे थे।
रौनित के पिता बडे वकील थे। दोनों में अक्सर सकारात्मक बातें होती थीं। अयोध्या फैसले को लेकर हलचल थी। इस पर भी चर्चा हुई। रौनित के पिता की दिनचर्या का यह हिस्सा था। वो खाली समय में समकक्ष वकीलों के साथ बैठते थे और सकारात्मक चर्चा करते थे। वही घर पर रौनित के साथ भी शेयर कर लेते थे। इस वजह से रौनित पिता के नजरिये को अपना नजरिया समझने लगा। उसके पिता कट्टर हिन्दू थे तो वह भी इस विषय पर कट्टर बात करने लगा जो अमजद और रोहित को बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थी। बात करते हुए वह भूल गया कि उसके मित्र इस बहस का हिस्सा नहीं हैं।
अमजद मन ही मन गुस्सा हो रहा था, लेकिन दोस्ती की लाज रख रहा था। वह इस बहस का हिस्सा नहीं बनना चाहता था, लेकिन वह रौनित की बातों से जुड़ता जा रहा था। अमजद की पृष्ठभूमि सामान्य जरूर थी पर उसके अब्बा भी कट्टर थे। अलीगढ़ छोड़ने के समय उन्होंने साफ कहा था, ’अपनी कौम वालों से ही दोस्ती रखना।’ पर उसे तो रौनित और रोहित का साथ ही पसंद था। तीनों का प्रोग्राम आगरा के बाद अमजद के घर अलीगढ़ जाने का था। अमजद घर में इन दोनों को ले तो जा रहा था, लेकिन मन ही मन रौनित की बातों से डर भी रहा था क्योंकि अमजद के पिता अयोध्या में बाबरी निर्माण के लिए एकराय थे। उसकी अब्बा से ज्यादा बात तो नहीं होती मगर बाबरी प्रकरण की बातों पर वह अब्बा के चेहरे पर क्रोध देखता था।
अचानक अमजद ने रौनित से कहा, ’ये बातें कार तक ही ठीक हैं जब घर चलना तो कुछ मत बोलना।’
रौनित, ’यार, तेरे अब्बा के साथ तो बहस करने में मजा आ जाएगा।’
अमजद, ’तू वहां मंदिर बनाने जाएगा, क्या?’ थोड़ा गुस्से में...
रौनित, ’जाना पड़ेगा तो बिल्कुल जाउंगा।’
अमजद, ’तो सुन ले, मैं भी मुसलमान का बेटा हूं, वहां तो मस्जिद ही बनेगी, तुम्हारे लोगों ने गिराई थी।’
रोहित दोनों की बातों को काटते हुए....
यार, ये तुम्हारे लोग, हमारे लोग बीच में कहां से आ गए, चेंज द टॉपिक।
रौनित, ’नहीं बहस करने दे, मंदिर तो बनकर ही रहेगा।’
अमजद के बोलने से पहले ही रोहित अचानक बोला, ’तू था उस समय और तू’... अमजद की ओर इशारा कर बोला।
यार, हम लोग अपना टूर क्यों खराब कर रहे हैं। गहरी सांस लेते हुए रोहित बोला।
मैं तो इससे इतना ही कह रहा था घर पर मुंह बंद रखना, अब्बा बहुत सख्त हैं। अमजद ने कहा।
हां, तो तेरे अब्बा से भी बहस कर लेंगे। रौनित बोला।
सेटअप यार, तुम लोग दूसरी बातें नहीं कर सकते हो क्या? रोहित बोला।
दोनोें सांस भर कर बोलने ही वाले थे कि रोहित बोला, ’तू बता कितनी बार अयोध्या गया है और तू... अमजद की ओर देखकर बोला।’
दोनों का जवाब न में था।
हम इतने अच्छे दोस्त हैं फिर भी यहां हमारी सोच क्यों नहीं मिलती पता है...
क्यों...दोनों ने ही कहा।
क्योंकि हम अपने नजरिये से देखते ही नहीं हैं, रोहित बोला
क्या मतलब, रौनित और अमजद एक साथ बोले,
रोहित बोला, तुम्हारे पापा कट्टर हिन्दू और तुम्हारे भी कट्टर। तुम लोग सिर्फ उतना ही जानते हो, जितना उनसे सुनते हो और उसी आधार पर बहस कर रहे हो।
तुम दोनों एक दूसरे के नजरिये से क्यों नहीं सोचते हो?
थोड़ी देर के लिए तुम मुसलमान बन जाओ और तुम हिन्दू, फिर बताओ क्या सही है क्या गलत।
रौनित ने अचानक गाड़ी रोक दी। वह कोसी पहुंच गए थे। किनारे एक होटल के बाहर एक औरत कूड़े से बचा खाना बटोर रही थी। रौनित की नजर उस पर पड़ी।
रोहित और अमजद ने भी उसे देखा।
खाना बीनने के बाद वह कुछ दूर बैठे अपने बच्चे को चुन-चुन कर उससे अच्छा खाना खिला रही थी।
तीनों यह देख ही रहे थे कि रोहित बोला, ’ऐसा भी भारत है, देख रहे हो न।’ उससे पूछोगे तो वह कुछ नहीं जानती होगी कि मंदिर बनेगा या मस्जिद।
मैं यह अक्सर देखता रहता हूं और महसूस भी करता हूं। तुम लोग बहस नहीं कर रहे हो, बस जीतना चाहते हो। तुम दोनों में कोई भी झुकना नहीं चाहता। तुम दोनों अपनी बातें कर ही नहीं रहे हो। तुम दोनों तो अपने-अपने पिता की बातों का हिस्सा बन रहे हो। जो सुना वही चिल्ला रहे हो। इसका नतीजा जानते हो क्या होगा? ये हमारा साथ में आखिरी सफर भी हो सकता है।
क्या मतलब? रौनित और अमजद ने एक साथ कहा।
हम अतीत के लिए अपने भविष्य को बिगाड़ रहे हैं्र। जो नहीं चाहते वह हो रहा है। यदि यूथ भी ऐसे कट्टरपंथी लोगों के पीछे-पीछे चलने लगेगा तो यह बहुत डरावना होगा।
हम जैसे युवाओं को तो अपनी दिशा खुद तय करनी होगी। हां, अभी बहुत लड़ना होगा, लेकिन इस गरीबी से।
उस औरत की तरफ इशारा कर रोहित बोला।
दोनों का ही सिर शर्म से झुक गया...
रौनित और अमजद के मुंह से एक साथ निकला ’सॉरी’
कार का शीशा चढ़ाते हुए रौनित ने साउंड तेज किया और हंसते हुए चल दिए आगरा की ओर।।

Wednesday, September 1, 2010

मीठी बात......

वो शाम को शमा जलाकर बैठे थे
हम अंधेरे में तनहा रहते थे
उनकी नजरों को था इंतजार हमारा
और हम उनसे आंख चुराए रहते थे।

ये सच नहीं कि हम उन्हें प्यार करते नहीं
उनके बिना जीने की सोच हम सकते नहीं
तड़प रहा है दिल मोहब्बत में दोनों का
वो वहां रोते नहीं और हम यहां रोते नहीं।

समंदर में लहरें आती हैं, मुड़ के चली जाती हैं
आंखों में आंसू ठहर क्यों जाते हैं
मिलन की चाहत में जल रही वो
बिन जल मछली जैसे तड़प रही वो
और यहां मैं भी बेकरार हूं
हमारे पास क्यों नहीं आती है वो।

Thursday, July 8, 2010

सुकूं कहां है ःःःःःःः

पैगम्बराने अमन कहां जाके सो गए
सारे जहां को आज सुकूं की तलाश है।।


यह लाइनें देश के ताजा हालात पर सटीक बैठती हैं। सुकून की ही आज देश को सबसे ज्यादा जरूरत है। सुकून, लेकिन है कहां? क्या जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर में सुकून है जहां शांति बहाली के लिए सेना पहरेदारी कर रही है? या पूर्वी भारत में सुकून है जहां नक्सलियों ने पुलिस चैकी उड़ा दी, थाने फूंक दिए, पटरियां काट दीं। ट्ेन संचालन ठप कर दिया और सरकार को बेबस कर दिया। देश के हर घर में क्या सुकून है जो बढ़ती महंगाई झेलने को मजबूर है। पहले तो दो-पांच रूपये ही बढ़ते थे मगर अब तो घरेलू गैस पर सीधे 35 रूपये ही बढ़ा दिए। क्या देश की राजनीति में सुकून है। जो महंगाई के मुद्दे पर जनता के लिए लड़ रहे हैं और प्रदर्शन व सड़क जाम कर उन्हें ही छल रहे हैं। क्या विपक्ष को सुकून है जो केंद्र को घेरने में जुटा है? क्या केंद्र सरकार को सुकून है जो महंगाई के लिए राज्य सरकारों पर आरोप मढ़ रही है? क्या राज्य सरकारों को सुकून है जो केंद्र पर त्योरियां चढ़ा रहे हैं? क्या महेन्द्र सिंह धौनी को सुकून है जो शादी के नाम पर मीडिया को नचा रहे हैं? क्या मीडिया को सुकून है जो धौनी के घर के बाहर फालतू रिपोर्टिंग कर पका रही है? क्या राहुल को सुकून है जो दलितों के घर खा रहे हैं? क्या मायावती को सुकून है जो घबरा रही हैं? क्या गडकरी को सुकून है जो भाजपा की शाखा लगा रहे हैं? क्या आडवाणी को सुकून है जो सुकून नहीं पा रहे हैं? भई आखिर सुकून है कहां?

Friday, June 11, 2010

सैनिक

मैंने देखा सैनिक तैनात पहाड़ों पर
चट्टानों से बातें करता
दोस्त बन चुकी थी हवा
और दुश्मन मौसम उसका
लड़ता था वो मानो स्वयं से
बंदूक तो बस दिखावा था।

मैंने देखा सैनिक तैनात मैदानों पर
साहब की चौकीदारी करता था
खाना लाना, बच्चों को घुमाना
खातिर मैडम की भी करता था
थी सच्ची भक्ति उसमें सेवा की
फिर भी नौकर लगता था।

मैंने देखा सैनिक तैनात बंकर में
धूल फांका करता था
छावनी हो या बॉर्डर हो
आगंतुक हो या दुश्मन हो
इंतजार करता रहता था।

मैंने देखा वो भी सैनिक
जो ट््रेन में छेड़खानी करता था
अभद्र, अश्लील हरकत उसकी
मारपीट तक देखो करता था
विरोध किया गर तुमने तो
फेंकने से भी नहीं हिचकता था

मैंने देखा ऐसा सैनिक
जो रात सिसकियां भरता था
बीवी, बच्चे घर से दूर
तनहाई में फोटो देखा करता था
कमजोर दिल उसका भी
भीग जाती थी आंख उसकी भी
जब वो दिल से मां कहता था।

मैने देखा लड़ता सैनिक
जो जांबाजी से भिड़ता था
चित कर दे हौसले दुश्मन के
जब वो युदृध करता था
आर-पार का मूड बनाकर
दुश्मन पर टूट पड़ता था।

मैंने देखा वो भी सैनिक
जो शहीद कहलाता था
टपकता था पानी छत से और आंसू आंख से
ये उसके घर का मंजर था
कुछ नहीं बचा सब खो गया
किसी का लाल किसी का बेटा सो गया
किसी का लाल किसी का बेटा सो गया
किसी का लाल किसी का बेटा सो गया।।

Saturday, June 5, 2010

हिंसा, हत्या और मरहम की राजनीति

फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के रिलीज के समय महानायक अमिताभ बच्चन की कही बात याद आती है। वे पहले शख्स थे जिन्होंने कहा था कि फिल्म में देश की गलत तस्वीर पेश की गई। यही कुछ प्रकाश झा की राजनीति में दिखता है। इसमें भी देश की राजनीति की गलत तस्वीर पेश की है। सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जानेे वाले भारत देश में कई विभिन्नताएं हैं मगर जो राजनीति का चेहरा प्रकाश झा ने दिखाया है। वह गले नहीं उतरता। फिल्म को मसाला लगाने में वो यह भी भूल गए कि इसका असर समाज के पहलू को भी उजागर करता है मतलब इससे गलत संदेश जाता है। सबको खुश करने के चक्कर में कोई खुश नहीं होता वाली कहावत यहां भी घटित हो गई। यह फिल्म न तो राजनीति पर बन सकी और न ही किसी विशेष घराने के उपर। यह सिर्फ राजनीति और घटिया राजनीति पर ही घूमती रही। जैसा कि प्रकाश झा दिखाना चाहते थे। अपहरण, गंगाजल जैसी सफल फिल्मों की थीम उन्होंने राजनीति में इस्तेमाल कर दी। प्यार और इमोशन को तवज्जो नहीं दिया गया और नायिका की नायक के बड़े भाई से शादी करा दी गई। नायिका का पिता भी फायदा देख रहा था। भई, ये तो पूरी तरह से गंदी राजनीति की तस्वीर पेश की है। पता नहीं, ऐसा उन्होंने कहां देख लिया। रिश्ते हमारे भारत की पहचान हैं। आदर, सत्कार यहां का मान है। हो सकता है प्रकाश झा ने ऐसा देखा हो या महसूस किया हो, लेकिन क्या किसी एक या दो के भ्रष्ट होने से पूरी राजनीति का चेहरा पढ़ने की वो हिम्मत रखते हैं।

फिल्में परिवर्तन का एक बड़ा माध्यम हैं। इसका समाज में बड़ा योगदान है। भारत के लोग तो खासकर के बॉलीवुड के दीवाने हैं। असल में, बॉडीवुड से आम आदमी थियेटर के माध्यम से जुड़ता है। इससे सीखता भी है। क्यों, थ्री ईडियट हमें तरक्की, कामयाबी और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करती। तारे जमीं पर हमें बच्चों की भावनाएं समझाने के लिए नहीं उकसाती। लगे रहो मुन्नाभाई क्या हमें गांधीगीरी नही सिखाती। हल्ला बोल क्या बदलाव का सूचक नहीं थी। या ऐसी ही कितनी फिल्में हैं जो हमें आगे बढ़ने की शिक्षा देती हैं। फिर हम राजनीति जैसी फिल्मों को क्यों स्वीकार करें। जो कि भारत की लोकतां़ित्रक प्रणाली को चुनौती देती दिख रही है। हिंसा, हत्या और मरहम की राजनीति को हम क्यों स्वीकार करें? यह मात्र कुछ अराजकतत्वों के राजनीति में आने मात्र से हुआ है। फिर हम पूरी राजनीति को क्यों दूषित मान लें?

प्रकाश झा हिंसा और हत्या स्पेशलिस्ट होते जा रहे हैं। इसीलिए इसे दिखाने के चक्कर में कहानी से ही भटक गए हैं। इनकी फिल्म न ही हत्या स्पेशल विशेषांक रहा; न ही परिवार विशेष और न ही शिक्षाप्रद। असल में वो गागर में सागर भरना चाहते थे, लेकिन उनकी गागर फूट गईं। फिल्म आने के पहले माना जा रहा था कि यह सोनिया गांधी के जीवन पर बनी होगी। हकीकत में यह फिल्म सोनिया गांधी के व्यक्तित्व को छू तक नहीं पा रही है। कटरीना कैफ को सोनिया गांधी जैसा गैटअप पहनाने से ही यह सोनिया गांधी आधारित फिल्म नहीं हो जाती। ये भी प्रकाश झा का पब्लिसिटी स्टंट रहा, जिससे लोगों को वे जोड़ सकें। असल में, राजनीति यह है जो इन्होंने प्रचार के लिए इस्तेमाल की।

यहीं कहानी खत्म नहीं हो जाती है। फिल्म का क्लाइमेक्स तो लाजवाब निकला। सीधे महाभारत काल की याद दिया दी। जब इन्होंने दिल खोलकर हत्या के सभी शॉट दिखा दिए और दिमाग में कुछ नहीं सूझा तो महाभारत काल में चले गए। नायक की मां को कुनती बना दिया। उन्होंने भी अजय देवगन को ज्येष्ठ पुत्र संबोधित किया। अजय देवगन को कर्ण, रणबीर कपूर को अर्जुन, नाना पाटेकर को कृष्ण बना दिया। आखिरी में बढ़िया महाभारत दिखाई। नाना उर्फ कृष्ण ने अर्जुन उर्फ रणबीर को उपदेश दिया और मॉडर्न अर्जुन ने भी धनुष की जगह पिस्टल से कर्ण उर्फ अजय देवगन का वध कर दिया। इससे पहले कुनती कर्ण के पास गई थी उसे अपनाने के लिए, लेकिन वहां भी राजनीति की झलक दिख गई। कर्ण अपने दोस्त दुर्योधन मतबल मनोज वाजपेयी के पास चला गया। वाह रही दोस्ती। प्रकाश झा ने राजनीति के नाम पर कम्पलीट डामा पैकेज दिया है पर, दर्शक अपने को ठगा सा महसूस कर रहे हैं क्योंकि यह राजनीति गले नहीं उतरती। राजनीति में आज भी बुरे लोगों को उंगली पर गिना जा सकता है। ऐसे गिने-चुने लोग या सोच को केंद्रित कर पूरी राजनीति का चेहरा नहीं बिगाड़ना चाहिए। यह देश राजनीति के बदौलत ही चल रहा है। इसमें अच्छे लोगों की कमी नहीं है। यदि पॉजिटिव सोच के साथ देश निर्वाण को केंद्रित कर फिल्म बनाई जाए तो पूरा देश थियेटर की तरफ मुड़ जाएगा पर इसमें राजनीति मत कीजिएगा।

Thursday, June 3, 2010

यह कैसी व्यथा

औरत दुखी होती जब
कहते लोग उसे बेऔलाद
नहीं आंगन में खेलती
कोई कली
देखूं जब सांझ
बेचैनी, तड़प दिल में
आंख में अश्रुधारा
गर बेटी ही होती तो
होता घर में उजियारा।

मत खरीदो छोटी पायल
ले आओ एक कड़ा
बेटा ही होगा
मेरी जान
सुन लो ये बात जरा
बेटा पाने की हसरत
दिल में पलने लगी
आषाढ़ वसंत सावन
की ऋतु ढलने लगी
नीरस हुआ जीवन
बेबस छाई जवानी
किसकी लगी नजर
नहीं आता कुछ समझ
टूटने लगी अब हिम्मत
जो थी फौलाद
नहीं आई आंगन में
अभी तक कोई औलाद।

सुनती थी लोगों के ताने वो
जीने के ढूंढती थी
रोज बहाने वो
अश्रु उसके तो बह जाते थे
लेकिन मेरे जम जाते थे
किया होगा हमने किसी
बेटी का तिरस्कार
जो जरूर रही होगी
किसी देवी का अवतार।

बेटा-बेटी में भेद
सोच ही पुरानी है
बेटा यदि मान है गुरूर है
तो बेटी आंख का पानी है
अब तो जाएंगे दर
देवी के
करेंगे चरणों में
फरियाद
दे दो मुझे बेटी
नहीं हसरत बेटे की।

ठुकरा के तुम्हारा आशीष
कैसा तड़प रहा हूं
जज्बाती हो रहा हूं
देखो
कैसा बिलख रहा हूं
गर मैंने किया गुनाह है
तो सजा का मैं हकदार हूं
मुझको तो दुनिया कुछ कहती नहीं
फिर उसे क्यों मिलती दुत्कार है
गुनहगार तो मैं हूं
पुरूष प्रधान समाज का आधार मैं हूं
फिर भी वो समाज में पाती तिरस्कार है
गर मैंने किया गुनाह है
तो उसे क्यों मिलती दुत्कार है।

माता, अब नहीं सहा जाता
देखकर उसके बेबसी के आंसू
अब नहीं जिया जाता
बुला लो अपने पास
यही है अब मेरी आस
या दिखा दो मुझे जीने का आधार
आंगन में खेले बेटी
ऐसा दे दो वरदान
ऐसा दे दो वरदान
ऐसा दे दो वरदान।।

-ज्ञानेन्द्र

Thursday, May 20, 2010

बुढ़िया की व्यथा

परवरिश में भूल हुई क्या, न जाने
ढलती उम्र में बच्चे आँख दिखाते हैं
नाजों से पाला था जिनको, न जाने
क्यूँ अब सहारा बनने से कतराते हैं
निवाला अपने मुंह का खिलाया जिनको, न जाने
क्यूँ वे आज साथ खाने से घबराते हैं
सारा दर्द मेरे हिस्से और खुशियाँ उनके, न जाने
क्यूँ वे अब भी दर्द मेरे हिस्से ही छोड़ जाते हैं
उनकी पार्टी मनती है रोशनी में और मेरी साम अँधेरी कोठरी में, न जाने
क्यूँ वे हर बार मुझे ही शामिल करना भूल जाते हैं
उम्र के साथ कमजोर हुई मेरी सोच, न जाने
क्यूँ वे आज मुझे याद करने से डर जाते हैं
जीवन के आखिरी सफर में चेहरे सबके देखने की हसरत में, न जाने
क्यूँ मेरे अपने विदेश में बैठ जाते हैं
अपनी उखरती साँसों के समय साथ उनका चाहा मैंने, न जाने
क्यूँ वे काम में इतने व्यस्त हो जाते हैं
उम्र भर सबको साथ लेकर चली मैं, न जाने
क्यूँ मेरी विदाई को वे गुमनामी में निपटाते हैं॥

Saturday, May 8, 2010

प्यार के नाम

अफसाना बनाने चला था मैं
उसको दीवाना बनाने चला था मैं
देख कर इक झलक उसकी
रूह_ऐ तमन्ना कह उठी
अब इबादत करूँ किसकी
खुदा की या उस चाँद की

दीवाना कर दिया उसकी इक नज़र ने
बेकरार कर दिया उसकी उसी नज़र ने
या खुदा मुझे कोई तो रास्ता बता दे
या वो रुख से नकाब उठा दे
या तू रुख से नकाब उठा दे

मेरी इक इल्तिजा मन मेरे मौला
मुझको मेरे महबूब का दीदार करा दे
दिखती है उसकी सूरत में तेरी सूरत
कुछ ऐसा कर मेरे मौला
उसके रुख से नकाब हटा दे


यदि देना है नज़राना तुझे मेरी बंदगी का
मेरी इबादत का मेरे रोजे का
मेरे मौला कर इशारा कुछ ऐसा
या तू देख मेरी ओर या नज़र उसकी मुझ पर कर दे

अब और किसी जन्नत का मुझे सबाब नहीं
उसके कदमों में मेरी जन्नत है मौला
बस इक आरजू है इल्तजा है
इक बार रुख से नकाब उठ जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए
मुझको मेरे खुदा का दीदार हो जाए।।

Friday, January 22, 2010

भगवान के नाम पत्रःःःःःःःःःः

हे परमपिता, आपके ही निर्देश पर ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना की। वनस्पति, जलवायु, जीव-जन्तु, पक्षी और हम मनुष्यों को अवतरित किया। आपही के द्वारा रचित संसार में जीवन चक्र सतत गति से चल रहा था। अचानक इसका संतुलन बिगड़ गया। आप नाराज तो नहीं हो गए? सब ग्लोबल वार्मिंग, ग्लोबल वार्मिंग चिल्लाने लगे। अब मिनी आइस एज, मिनी आइस एज कर रहे हैं। वसंत आ गया है। लोगों को पता ही नहीं चला। ठिठुरन इतनी जो थी। मैंने अनोखा वसंत मनाया। अपनी रजाई में पीला खोल चढ़ा लिया।
हे परमपिता परमेश्वर, आपने हम भक्तों को अपनी सबसे अच्छी कृति सोचकर इस धरती पर भेजा और जब उपर से देखा तो आप नाराज हो गए। नीचे हर कोई ब्रह्मा बनना चाहता है। आपने ही हम मनुष्यों को अलग-अलग दिमाग दे दिए। अब आप ही क्रोधित हो रहे हैं। हे परमपिता, सुना है आप सबको एक ही नजर से देखते हैं फिर इस बार भेदभाव क्यों? खास आदमी साधन संपन्न हो रहा है और आम आदमी नंगा हो रहा है। क्या आप भी आम आदमी से रूठे हुए हैं। ये मत सोचिए कि वे आपको पूजते नहीं। हां, वे देशी घी और मेवे को भोग चढ़ाते नहीं। यदि ये ऐसा कर सकते तो आम क्यों होते? खास न होते। अब इनका दर्द आप नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा? प्रभु, ठंड तो ठीक थी, अब ये गलन क्यों मचा रखी है? बूढ़ों के जोड़ खुल गए। बच्चों के होंठ सिल गए। महिलाओं की पीठ धर गई और जो बचे वो मौसम में निपट गए। गेहूं की फसल पक गई। आलू को पाला मार रहा है। ठंड प्रचंड होती जा रही है।
प्रभु देखिए, स्टेशन, बस अड्डों और मंदिर-मस्जिदों के बाहर लोग ठिठुर रहे हैं। आपके खास आदमी कंबल तक नहीं बंटवा रहे हैं और जो आपकी दया से मिल भी रहे हैं, उनमें कमीशन सेट हो रहे हैं। आम आदमी कहते हैं वो गरमाते नहीं हैं। हे परमपिता, आपने इस बार विचित्र सर्दी भेजी है जो रिकार्ड बना रही है। कई सूखे पत्ते ’लोग’ टपक चुके हैं और कई टपकने की तैयारी में हैं।
हे परमेश्वर, आम आदमी के घर की महिलाएं आपको कोस रही हैं। सब्जी, रोटी तक तो ठीक था, बच्चों के मुंह से दूध तक छीन लिया। कैसी सरकार दी आपने, काहे की सरकार दी आपने। आपके तथाकथित भक्तों ने मिलों में चीनी डंप कर ली। आपके ही शरद पवार जैसे साधकों ने चुनावों के समय सरकारी जमा चीनी बंटवा दी। अब मांग अधिक है और पूर्ति है नहीं। चीनी आयात कोई कर नहीं रहा। अब तो चीनी का बुरादा भी चीनी के दामों में बिक रहा है। भगवन, आप नाराज हैं कि गरीब साधक भोग नहीं लगाते। पहले तो माताओं ने बच्चों को फीका दूध पिलाना सिखाया। अब उन्हें पीने को दूध ही नहीं मिल रहा। आप ही बताएं, आपको भोग कैसे लगाएं? भगवन यही कारण तो नहीं जो आप नाराज हैं और यदि यही कारण है तो आप कैलाश की चोटी से नीचे उतर आइए क्योंकि इस मौसम का असर आप पर भी पड़ सकता है। प्रभु हम तो गरीब हैं, मर जाएंगे। करोड़ों, अरबों भक्तों की आपमें आस्था है। आप ऐसा कीजिए, इस सर्दी एयरकंडीशन और रूमहीटर वाले भक्तों के यहां भ्रमण कर आएं। कहीं गरीब की कुटिया में आपको भी नजला न हो जाए।
आपका सेवक

-ज्ञानेन्द्र