Sunday, February 13, 2011

दिल का मदनोत्सव वसंत

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - वसंत आता नहीं लाया जाता है। कोई भी इसे अपने उपर ला सकता है। इन पंक्तियों को शहर के युवा दिलों ने बखूबी साबित किया। जवानी के मदनोत्सव में सराबोर युवा दिल सड़क पर आते-जाते पीले फूल ’पीले वस्त्रों में लड़कियां’ देख रहे थे। तभी उन्हें वसंत को मनाने और ओढ़ने का ख्याल आया। क्या वसंत समुद्र जैसी विशाल लहरों के हिलोरों को ही कहते हैं। यदि हां तो मान लिया जाए कि यही युवा दिल का मदनोत्सव वसंत है। सावन के जिस अंधे को हर जगह हरा-हरा दिखता है वही युवा मन हर जगह पीला-पीला देखने के लिए क्यों आतुर नजर आता है? सेक्स या कामुकता के लिए हमेशा से ही चटकीला लाल रंग प्रभाव में रहा है। चाहे वह कंडोम में स्ट्ावेरी का प्रचार हो या फिर सुहाग के जोड़े में सजी दुल्हन। लड़की लाल दुपट्टे वाली गाना हो या लाल छड़ी मैदान खड़ी का सदाबहार गीत। लाल रंग ने ही हर जगह बाजी मारी है पर यह मदनोत्सव का कैसा त्योहार है जो पीला होने के बावजूद लाल पर भारी पड़ रहा है। युवा मन की एक और कैटेगरी है जो बीयर के गिलास में पीला रंग ढूंढता है और उसी को ओढ़ता हुआ मदहोश हो मदनोत्सव में मस्त रहता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी की लाइनों में सचमुच बहुत ताकत है। वसंत आता नहीं लाया जाता है।

-ज्ञानेन्द्र

Sunday, January 2, 2011

यात्रा वृतांत-- दाउजी महाराज



पतली लंबी सड़क। जो सीधी जा रही है। रेतीला मैदान। शांति बयान कर रहा है। यमुना का किनारा और नाव वाले की आवाज। जल्दी बैठो...जल्दी चलो का शोर। लकड़ी की नाव और रस्से की पतवार। कुछ ऐसी ही मनमोहक यात्रा थी बलदेव के दाउ जी महाराज की। अचानक प्रोग्राम तय हो गया। शनिवार सुबह नौ बजे निकलने का। साढ़े आठ बजे सोकर ही उठे। मौसम साफ था। हवा चल रही थी। झट से तैयार हो गए और छोड़ दिया घर। सिकंदरा पर चार मित्र इंतजार कर रहे थे। दीक्षांत, अनुज, देवेन्द्र और मिंटू। संजय सिंह साथ में ही थे। सिकंदरा पर गरम-गरम बेड़ही देखकर खाली पेट से रहा नहीं गया। दो-दो बेड़ही खा ली और कार छोड़ मोटरसाइकिल पर सवार हो गए। देवेन्द्र सिंह जिन्हें हम मास्साब और ठेनुआ कहते हैं। उनकी बाइक की स्टेयरिंग मैंने थाम ली और वो भी मेरे पीछे जकड़ कर बैठ गए। यहां से शुरू हुई हमारी यात्रा दाउजी महाराज के दर्शनों के लिए।
दाउजी महाराज के लिए सफर मथुरा से बलदेव के लिए है, लेकिन हमारी योजना कुछ और थी। हम नदी और नाव का मजा भी लेना चाहते थे। इसलिए मेन सड़क को छोड़कर चल दिए कैलाश मंदिर की ओर। ये वो शार्टकट रास्ता है जहां से बलदेव महज 22-23 किलोमीटर है। हम सभी यमुना के किनारे पहुंच गए। नाववाले का इंतजार कर रहे थे। नाव के किनारे लगने पर डगमगाते कदमों से चढ़ा दी बाइक नाव पर। रेतीली मिट्टी में बाइक लहरा रही थी, लेकिन जज्बा डिगने नहीं दे रहा था। पहला अनुभव भी था इसलिए मजा आ रहा था। पर्यटक के रूप में हम छह लोग ही थे बाकी रोजवाले थे, जिनकी नदी पार करना रोज की आदत थी। हमारी हरकतों को देखते हुए नाववाले ने हमसे ज्यादा पैसे झटक लिए, लेकिन बहस किसी ने नहीं की क्योंकि सब मगन थे नाव में फोटो खिंचवाने के लिए। हर फोटो पर एक कमेंट। खुद ही दे रहे थे। एंगल खुद ही बना रहे थे और फोटो स्पेशलिस्ट भी खुद ही बन गए थे। ये और बात है कि डिजिटल कैमरा नौसिखियों के हाथ में था इसीलिए हर फोटो में तारीख 2003 की चल रही थी। दोस्त अनुज के कैमरे में बार-बार वो पल कैद हो रहे थे जो फिर पता नहीं कब आएं। नाव दूसरे किनारे पर लगी तो और मजा आया। इस बार बाइक चढ़ाने के लिए संघर्ष कठिन था। नाव किनारे पर ऐसी जगह लगी जहां से मिट्टी के टीले जैसी उंची चढ़ाई थी। जैसे ही दो बाइक सवार गुजरे, टायरों ने मिट्टी को अंदर दबा दिया। अब बादवालों के लिए बाइक चढ़ाना मुसीबत जैसा हो गया था। हमने तो बाइक स्टार्ट की और पैदल ही चढ़ाई फिर सबने यही किया। आनन्द आ रहा था। अब गाड़ी खेतों के किनारे चल रही थी। रास्ता कोई जानता नहीं था सिवाय अनुज एक्सपर्ट के। वो आगे-आगे चला और हम पीछे-पीछे। पतले रास्तों, कच्ची सड़कों से होते-होते कितने गांव किनारे ही छूट गए। खेतों में बाईं ओर सरसों लहलहा रही थी तो दाईं ओर आलू की फसल लगी थी। सेहत, नेरा, बरौली अहीर होते हुए पहुंच गए बलदेव। रास्ते में विवादित हाईवे भी मिला जिसे हम यमुना एक्सप्रेस वे के नाम से जानते हैं। हम इसके उस अंडरपास से गुजरे तो महसूस करने लगे कि इसी के नीचे ही अलीगढ़ में किसानों ने सूबे की सरकार को हिलाया था और सरकारी गोलियां भी खाई थीं।
सुना था मथुरा का हर गांव संपन्न है। कुछ ऐसा ही देखने को भी मिला। बलदेव कस्बे में पक्के मकान हैं। घरों में डीटीएच कनेक्शन लगे हैं। हालांकि सड़क खस्ताहाल है। वोल्टेज कम आता है। पावरकट की समस्या है, लेकिन फिर भी लोग आनन्द में रहते हैं। बलदेव पहुुंचते ही सड़क के दोनों ओर मिठाई, पकौड़ी की दुकानें ज्यादातर दिखीं। थोड़ा अंदर गए तो दाहिनी ओर मैदान में मेला लगा था। हम लोग अंदर नहीं गए, लेकिन कभी अखबार में जिस बलदेव मेले के बारे में पढ़ा था वो यही है। छोटे-बड़े झूले भी लगे थे, जिसमें लोग आनन्द ले रहे थे। एक नजर में पूरा मेला बाहर से ही देखने की हम लोगों ने कोशिश की, बाइक पर एक्सीलेटर को धीमा करने और ब्रेक पर पैरों को जोर देने की कोशिश नहीं की। पूछते हुए दाउजी महाराज के मंदिर पहुंच गए। इस समय, वाकई बड़ा सुकून मिल रहा था। जिन दाउजी महाराज के दर्शन के लिए देश-दुनिया से लोग आते हैं। जिनकी महिमा और माखन-मिसरी का प्रसाद पूरे विश्व में आलौकिक है उन दाउजी महाराज के चरणों में हम लोग खड़े थे और शीश नवा रहे थे। दाउजी महाराज के दर्शन कर अंदर से मन रोमांचित हो रहा था और आत्मा प्रसन्नचित हो रही थी।
दाउजी के दर्शन के बाद हम लोग बंदी गांव के लिए निकल गए। हमारे आॅफिस के ही जगदीश ओझा का पैतृक घर है। ओझा जी से फोन पर रास्ता पूछते हुए महावन की ओर चल दिए। वो रास्ते में इंतजार कर रहे थे, लेकिन हम लोगों को रास्ते में लहलहाती सरसों ने रोक लिया। करीब 15 मिनट तक सभी ने पोज बनाए और तरह-तरह से फोटो खिंचाए। दीक्षांत का पिपीरी बजाकर शू-शू करने का एक्सक्लूसिव फोटो भी कैमरे में कैद हो गया। ठहाके लगा ही रहे थे कि फिर ओझा जी का फोन आ गया। सभी फोटोशेसन छोड़कर आगे बढ़ गए। ओझा जी से मिले तो उन्होंने अपने और अपने भाइयों के खेत दिखाए। गेहूं बोया जा चुका था। आगे के कुछ खेतों में पानी भी लगाया जा रहा था। हवा मध्धम गति से बह रही थी। वहां से हमने बंदी गांव स्थित बंदीदेवी के दर्शन किए। बड़ा नाम सुना था बंदी देवी का। ये वही बंदी देवी हैं जिन्हें कंस ने कारागार में आठवां पुत्र जानकर मारने की चेष्टा की थी। देवी स्वरूप कन्या कृष्ण के पैदा होने की बात कंस को बता ओझल हो गई थीं। स्थानीय लोगों की यह कुलदेवी हैं। मान्यता है कि नई दुल्हन पहले इनका आशीर्वाद लेती है फिर गांव के घरों में जाती है। यहां आने से पहले एक गड़बड़ हुई। मेरी गाड़ी पानी में स्लिप की थी। मेरे उपर मास्साब गिरे। बाइक वहीं गिर गई। मेरी हथेली में खरोंच आई, लेकिन मास्साब के दोनों घुटनों में खिड़की बनाकर खून छलक आया। ओझाजी के घर में चाय की चुस्कियों के साथ थोड़ा आराम किया। मास्साब ने एंटी सेप्टिक क्रीम लगाई और फिर वापसी की ओर हम लोग बढ़ चले। एक बात बताना भूल गया। जैसा मौसम आगरा में छोड़ा था वैसा फिर हमें कहीं नहीं मिला। आगरा में भी नहीं। हम लोग ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गए, पीछे से मौसम बिगड़ता ही जा रहा था। रूके दो बार और भीगे भी दो बार। मौसम खराब होता जा रहा था। सड़कें गीली हो चुकी थीं। हवा चल रही थी। गाड़ी की स्पीड भी कम हो गई थी। वापस उसी रास्ते होते हुए हम लोग नदी किनारे पहुंच गए। बारिश की वजह से रेतीली मिट्टी बैठ चुकी थी। दीक्षांत गाड़ी लेकर नाव में चढ़ गया और हम लोगों को ओवरलोड होने की वजह से नाववाले ने रोक दिया। वो और मिंटू नाव में बढ़ चले। देखते ही देखते नाव छोटी होती चली गई और उस पर सवार लोग भी। किनारे पहुंच कर नाव फिर चली। इन सब में आधे घंटे से ज्यादा बीत चुके थे। नाव फिर किनारे लगी। इस बार हम चढे़। इस बार न नाव छोटी हो रही थी और न ही हम लोग। नाव में हम लोग सवार थे। हमारी नजर में जितने थे उतने ही रहे। दूसरे किनारे लगते ही हमभी उतरे। बारिश इतनी हो चुकी थी कि उपर भी मिट्टी बुरी तरह चिकनी हो गई थी। गाड़ी स्लिप कर रही थी। जैसे-तैसे हमने पार किया और सड़क पर आते ही गाड़ी दबा दी सिकंदरा की ओर। यहां स्टैंड पर मेरी कार खड़ी थी। उस पर हम और संजय जी बैठे और बढ़ चले आगरा की ओर।

दाउजी की इस यादगार यात्रा के लिए सभी मित्रांे को बधाई।

-ज्ञानेन्द्र

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Tuesday, November 16, 2010

बलि दिवस पर खास

इसे इत्तेफाक ही कहंेगे कि बकरीद और देवोत्थान साथ हैं। देवता जब आंख खोलेंगे तो असंख्य बकरे अपनी अंतिम सांस छोड़ेंगे, कुर्बान होंगे क्योंकि कुर्बानी...कुर्बानी...कुर्बानी...अल्लाह को प्यारी है कुर्बानी। अजब संयोग है इस बार चार पैर के बकरों के अलावा दो पैर के बकरे भी कटेंगे या हलाल होंगे, जो भी कह लें। ये दो पैर के बकरे कौन हैं साहब...अजी ये वो बकरे मतलब लड़के हैं जो सेहरा बांधेगे, घोड़ी चढें़गे और हंसते-हंसते कुर्बान होंगे। बकरीद में बकरे को सजाया जाता है। इन्हें भी सजाया जाएगा। बकरे को माला पहनाई जाती है, इन्हें भी पहनाई जाएगी। बकरे को खूब खिलाया जाता है, जनाब इन्हें भी खिलाया जाएगा। बकरे की कुर्बानी के समय लोग खुशी मनाते हैं, यहां भी धूम-धड़ाके से बारात निकाली जाएगी और खुशी मनाई जाएगी। बस फर्क इतना होगा कि बकरों को हमेशा के लिए सुला दिया जाएगा और इन्हें...... बताने की जरूरत नहीं। बेचारे बकरे तो हलाल हो जाएंगे। जन्नत की ओर रवाना हो जाएंगे, लेकिन दूल्हे शादी की सेज से नया जन्म पाएंगे। बकरे अपने-अपने कर्मों के हिसाब से नया जन्म पाते हैं, लेकिन यहां भी दूल्हे लाचार हो जाते हैं। बकरों को किसी भी योनि में जन्म मिले, वो बकरा तो नहीं बनेगा जबकि दूल्हा शादी के बाद चूहा बन जाता है जिस पर दुर्गाजी सवार रहती हैं। कुछ अपने को बाहर शेर भी कहते हैं मगर घर में बिल्ली बन जाते हैं वो भी भीगी। कुछ इस तरह शादी के बाद अलग-अलग योनियों में दूल्हा भटकता रहता है। बकरों को तो जन्नत नसीब भी हो जाती होगी मगर ये तो जन्नत के दरवाजे पर खड़े ही रह जाते हैं। खैर बकरा काटो चाहे दूल्हा। आज का जमाना खूब मजे लेने लगा है। बकरा काटोगे तो चाव से खाया जाएगा और दूल्हा काटोगे तो नाच-नाच कर खाया जाएगा। इन्ज्वाय दोनों में ही किया जाएगा। इसलिए बलि अब सस्ती हो गई है-
बकरीद मुबारक......

Wednesday, November 3, 2010

दीपावली विशेष:ःःः

मदारी-बंदर का खेल

डम... डम... डम... डम... डम... डम...

मदारी: जमूरे

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: लोगों को हंसाएगा

जमूरा: हंसाएगा, उस्ताद

मदारी: मनोरंजन करेगा

जमूरा: करेगा, उस्ताद

मदारी: बता, धनतेरस के बाद कौन सा त्योहार आता है

जमूरा: दीपावली, उस्ताद

मदारी: दीपावली में क्या होता है

जमूरा: खुशी मनाते हैं, उस्ताद

मदारी: खुशी किसके साथ मनाते हैं

जमूरा: घरवालों के साथ, उस्ताद

डम... डम... डम... डम... डम...

मदारी: जमूरे, तो इस बार घर जाएगा

जमूरा: नहीं, उस्ताद

मदारी: क्यों, खुशी नहीं मनाएगा

जमूरा: नहीं, उस्ताद

मदारी: घर नहीं जाएगा

जमूरा: नहीं उस्ताद

मदारी: उदास है क्या

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: क्यों जमूरे

जमूरा: छुट्टी नहीं मिली, उस्ताद

मदारी: छुट्टी क्यों नहीं मिली

जमूरा: सेटिंग नहीं थी, उस्ताद

मदारी: नौकरी करता था, सेटिंग क्यों नहीं बन पाई

जमूरा: काम करता था, उस्ताद

मदारी: काम तो सब करते थे

जमूरा: मैं अडवांस नहीं था, उस्ताद

मदारी: जमूरे...उदास है

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: मेरे साथ दीवाली मनाएगा

जमूरा: नहीं, उस्ताद

मदारी: फिर क्या करेगा

जमूरा: अपने को कोसूंगा, उस्ताद

मदारी: क्यों कोसेगा

जमूरा: नौकरी, न करी, उस्ताद

मदारी: क्यों न करी

जमूरा: छुट्टी कैंसल हो गई, घर नहीं जा सकता,
अब आम आदमी अपना धार्मिक पर्व नहीं मना सकता

मदारी: तो क्या मानंे, अंग्रेजों का शासन आ गया

जमूरा: हां, उस्ताद

मदारी: फिर आजादी कैसी... सोच में पड़ गया मदारी

जमूरा: सोचो मत, उस्ताद

ये रोने का समय है, देखो, आम आदमी आज भी खुशियों से कितनी दूर है।



इस दीवाली न जाने कितने तनहाई में रहेंगे
दुनिया तो जगमग होगी, दिल में अंधेरे रहेंगे
होंगे दूर न जाने कितने परिवार से
तकिया लेकर सुबकेंगे तो कई टल्ली भी रहेंगे।।


दीपावली की सभी को शुभकामनाएं:ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः

Tuesday, September 28, 2010

अहसास

एक रात
चांदनी छाई
ठंडी हवा सरसराई
ख्वाब मेरे
सजने लगे
होंठ मेरे खिलने लगे
सपनों में मैं खोने लगा
कुछ मुझे होने लगा
बदल रहा बार-बार करवट
पड़ रही थी चादर में सिलवट
मैं मदहोश होने लगा
जिया मेरा खोने लगा
ये कैसा अहसास होने लगा।

Wednesday, September 22, 2010

बहस भरा सफर

सुबह के नौ बजे थे। तीन दोस्त दिल्ली-आगरा हाइवे पर चल रहे थे। वे नोएडा से आगरा आ रहे थे। रोहित, रौनित और अमजद। तीनों ही नोएडा के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र हैं। तीनों पढ़ने में तेज थे और तीनों की बनती भी खूब है। रोहित आगरा का रहने वाला और साधारण परिवार का था। तीनों रौनित की कार में उसी के घर आ रहे थे। रौनित बड़े परिवार का इकलौता बेटा था जबकि अमजद नोएडा में किराये पर रहता था। वो रहने वाला अलीगढ़ का है। आगरा आते हुए तीनों बात कर रहे थे आयोध्या फैसले के बारे में। हमेशा एक राय रहने वाले इस बार एक राय नहीं थे। फिर भी बहस कर रहे थे।
रौनित के पिता बडे वकील थे। दोनों में अक्सर सकारात्मक बातें होती थीं। अयोध्या फैसले को लेकर हलचल थी। इस पर भी चर्चा हुई। रौनित के पिता की दिनचर्या का यह हिस्सा था। वो खाली समय में समकक्ष वकीलों के साथ बैठते थे और सकारात्मक चर्चा करते थे। वही घर पर रौनित के साथ भी शेयर कर लेते थे। इस वजह से रौनित पिता के नजरिये को अपना नजरिया समझने लगा। उसके पिता कट्टर हिन्दू थे तो वह भी इस विषय पर कट्टर बात करने लगा जो अमजद और रोहित को बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थी। बात करते हुए वह भूल गया कि उसके मित्र इस बहस का हिस्सा नहीं हैं।
अमजद मन ही मन गुस्सा हो रहा था, लेकिन दोस्ती की लाज रख रहा था। वह इस बहस का हिस्सा नहीं बनना चाहता था, लेकिन वह रौनित की बातों से जुड़ता जा रहा था। अमजद की पृष्ठभूमि सामान्य जरूर थी पर उसके अब्बा भी कट्टर थे। अलीगढ़ छोड़ने के समय उन्होंने साफ कहा था, ’अपनी कौम वालों से ही दोस्ती रखना।’ पर उसे तो रौनित और रोहित का साथ ही पसंद था। तीनों का प्रोग्राम आगरा के बाद अमजद के घर अलीगढ़ जाने का था। अमजद घर में इन दोनों को ले तो जा रहा था, लेकिन मन ही मन रौनित की बातों से डर भी रहा था क्योंकि अमजद के पिता अयोध्या में बाबरी निर्माण के लिए एकराय थे। उसकी अब्बा से ज्यादा बात तो नहीं होती मगर बाबरी प्रकरण की बातों पर वह अब्बा के चेहरे पर क्रोध देखता था।
अचानक अमजद ने रौनित से कहा, ’ये बातें कार तक ही ठीक हैं जब घर चलना तो कुछ मत बोलना।’
रौनित, ’यार, तेरे अब्बा के साथ तो बहस करने में मजा आ जाएगा।’
अमजद, ’तू वहां मंदिर बनाने जाएगा, क्या?’ थोड़ा गुस्से में...
रौनित, ’जाना पड़ेगा तो बिल्कुल जाउंगा।’
अमजद, ’तो सुन ले, मैं भी मुसलमान का बेटा हूं, वहां तो मस्जिद ही बनेगी, तुम्हारे लोगों ने गिराई थी।’
रोहित दोनों की बातों को काटते हुए....
यार, ये तुम्हारे लोग, हमारे लोग बीच में कहां से आ गए, चेंज द टॉपिक।
रौनित, ’नहीं बहस करने दे, मंदिर तो बनकर ही रहेगा।’
अमजद के बोलने से पहले ही रोहित अचानक बोला, ’तू था उस समय और तू’... अमजद की ओर इशारा कर बोला।
यार, हम लोग अपना टूर क्यों खराब कर रहे हैं। गहरी सांस लेते हुए रोहित बोला।
मैं तो इससे इतना ही कह रहा था घर पर मुंह बंद रखना, अब्बा बहुत सख्त हैं। अमजद ने कहा।
हां, तो तेरे अब्बा से भी बहस कर लेंगे। रौनित बोला।
सेटअप यार, तुम लोग दूसरी बातें नहीं कर सकते हो क्या? रोहित बोला।
दोनोें सांस भर कर बोलने ही वाले थे कि रोहित बोला, ’तू बता कितनी बार अयोध्या गया है और तू... अमजद की ओर देखकर बोला।’
दोनों का जवाब न में था।
हम इतने अच्छे दोस्त हैं फिर भी यहां हमारी सोच क्यों नहीं मिलती पता है...
क्यों...दोनों ने ही कहा।
क्योंकि हम अपने नजरिये से देखते ही नहीं हैं, रोहित बोला
क्या मतलब, रौनित और अमजद एक साथ बोले,
रोहित बोला, तुम्हारे पापा कट्टर हिन्दू और तुम्हारे भी कट्टर। तुम लोग सिर्फ उतना ही जानते हो, जितना उनसे सुनते हो और उसी आधार पर बहस कर रहे हो।
तुम दोनों एक दूसरे के नजरिये से क्यों नहीं सोचते हो?
थोड़ी देर के लिए तुम मुसलमान बन जाओ और तुम हिन्दू, फिर बताओ क्या सही है क्या गलत।
रौनित ने अचानक गाड़ी रोक दी। वह कोसी पहुंच गए थे। किनारे एक होटल के बाहर एक औरत कूड़े से बचा खाना बटोर रही थी। रौनित की नजर उस पर पड़ी।
रोहित और अमजद ने भी उसे देखा।
खाना बीनने के बाद वह कुछ दूर बैठे अपने बच्चे को चुन-चुन कर उससे अच्छा खाना खिला रही थी।
तीनों यह देख ही रहे थे कि रोहित बोला, ’ऐसा भी भारत है, देख रहे हो न।’ उससे पूछोगे तो वह कुछ नहीं जानती होगी कि मंदिर बनेगा या मस्जिद।
मैं यह अक्सर देखता रहता हूं और महसूस भी करता हूं। तुम लोग बहस नहीं कर रहे हो, बस जीतना चाहते हो। तुम दोनों में कोई भी झुकना नहीं चाहता। तुम दोनों अपनी बातें कर ही नहीं रहे हो। तुम दोनों तो अपने-अपने पिता की बातों का हिस्सा बन रहे हो। जो सुना वही चिल्ला रहे हो। इसका नतीजा जानते हो क्या होगा? ये हमारा साथ में आखिरी सफर भी हो सकता है।
क्या मतलब? रौनित और अमजद ने एक साथ कहा।
हम अतीत के लिए अपने भविष्य को बिगाड़ रहे हैं्र। जो नहीं चाहते वह हो रहा है। यदि यूथ भी ऐसे कट्टरपंथी लोगों के पीछे-पीछे चलने लगेगा तो यह बहुत डरावना होगा।
हम जैसे युवाओं को तो अपनी दिशा खुद तय करनी होगी। हां, अभी बहुत लड़ना होगा, लेकिन इस गरीबी से।
उस औरत की तरफ इशारा कर रोहित बोला।
दोनों का ही सिर शर्म से झुक गया...
रौनित और अमजद के मुंह से एक साथ निकला ’सॉरी’
कार का शीशा चढ़ाते हुए रौनित ने साउंड तेज किया और हंसते हुए चल दिए आगरा की ओर।।

Wednesday, September 1, 2010

मीठी बात......

वो शाम को शमा जलाकर बैठे थे
हम अंधेरे में तनहा रहते थे
उनकी नजरों को था इंतजार हमारा
और हम उनसे आंख चुराए रहते थे।

ये सच नहीं कि हम उन्हें प्यार करते नहीं
उनके बिना जीने की सोच हम सकते नहीं
तड़प रहा है दिल मोहब्बत में दोनों का
वो वहां रोते नहीं और हम यहां रोते नहीं।

समंदर में लहरें आती हैं, मुड़ के चली जाती हैं
आंखों में आंसू ठहर क्यों जाते हैं
मिलन की चाहत में जल रही वो
बिन जल मछली जैसे तड़प रही वो
और यहां मैं भी बेकरार हूं
हमारे पास क्यों नहीं आती है वो।